भारत का प्राचीन भूगोल (बौद्ध काल) एलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा लिखित पुस्तक “The Ancient Geography of India” अनुवादक: ताराराम, प्राक्कथन: डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद सिंह Pracheen Bharat ka Bhugol

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भारत का प्राचीन भूगोल ( बौद्ध काल )

एलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा लिखित पुस्तक ” The Ancient Geography of India” का मुकम्मल, विश्वसनीय तथा प्रमाणिक अनुवाद।

अनुवादक/ संपादक: ताराराम ( बौद्ध अध्ययन और अनुसंधान केंद्र ,जोधपुर )

प्राक्कथन: डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद सिंह ( अंतरराष्ट्रीय ख्यात भाषा वैज्ञानिक, आलोचक एवं इतिहास मर्मज्ञ )

पृष्ठ: 432

मूल्य: 450₹

 

भारत के प्राचीन ग्रंथ, चाहे वे वेद, उपनिषद हो, या जैनों और बौद्धों के आगम ग्रंथ हो। इन सब में भारत के भौगोलिक और मानवीय भूगोल का उल्लेख मिलता है, परंतु भारत के प्राचीन भूगोल का सिलसोलेवार वर्णन किसी ग्रंथ में नहीं मिलता है। इस कमी को कई विद्वानों ने अपने श्रम साध्य प्रयत्नों से पाटने की कोशिश की है, जिनमें स्वनाम धन्य मेजर जनरल सर कन्निंघम का नाम सर्व प्रमुख लोगों में शुमार है। प्रस्तुत पुस्तक उनके अगाध ज्ञान और विलक्षण प्रतिभा की जीती जागती तस्वीर है। उनकी यह कृति कई मामलों में अद्वितीय है, जिसे हर किसी भारतीय को पढ़ना चाहिए, जो भारत के प्राचीन गौरव के भूगोल से रूबरू होना चाहता है।

यह महत्वपूर्ण है कि ईसवी पूर्व में चौथी शताब्दी में सिकन्दर के आक्रमण एवं ईसा के पश्चात सातवीं शताब्दी में चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग की यात्राओं का विवरण भारत के प्राचीन इतिहास और प्राचीन भूगोल की जानकारी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन भारत के बारे में भारत की सीमाओं से बाहर लिखे गए इतिहास पर नजर डालते हैं, तो हमें पता चलता है कि इस दिशा में सबसे पहला प्रयास यूनानी लेखकों का है। इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय हेरोडोटस, नियारकस, मेगस्थनीज, प्लुयर्क, एरियन, स्ट्रैबो, ज्येष्ठ प्लिनी और टॉलेमी आदि प्रमुख हैं। लेकिन, मेगस्थनीज को छोड़कर, इन सभी ने भारतीय इतिहास को सही अर्थों में केवल सीमांतिक रूप से ही स्पर्श किया है। उनका सरोकार अधिकांशतः भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों और प्रधानतः उन क्षेंत्रों से ही रहा है, जो फारस (पर्शिया) और यूनान के क्षत्रपों के राज्यों के भाग थे अथवा जहां सिकंदर का अभियान हुआ था। मेगस्थनीज ने अपनी इंडिका नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक लिखा है, लेकिन यह पुस्तक आज हमें उपलब्ध नहीं है। हमें मेगस्थनीज द्वारा लिखित बातों का पता डायोडोरस, स्ट्रेबो और एरियन के लेखों में शामिल अनेक उद्धरणों से लगता है।

जनरल कनिंघम द्वारा लिखित ग्रंथ ‘एन्शियण्ट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया’, प्रथम खण्ड, वास्तविक समालोचनात्मक अनुसन्धान पर आधारित बौद्ध युग से संबंधित एक ऐतिहासिक ग्रंथ है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में, लेखक ने सिकंदर के भारत-आक्रमण (चतुर्थ शताब्दी ईसवी पूर्व ) के ग्रीक विवरणों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण (सातवी शताब्दी ईसवी) के आधार पर प्राचीन भारतीय भूगोल का विवरण दिया है। अतः जिस काल के भूगोल की रूपरेखा कनिंघम ने अपने उपर्युक्त ग्रन्थ में प्रस्तुत की है, वह चतुर्थ शताब्दी ईस्वी-पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी ईसवी तक की है। चूंकि चीनी यात्री ह्वेनसांग एक बौद्ध भिक्षु था और उसने प्रधानतः उन स्थानों की यात्रा की थी, जो भगवान्‌ बुद्ध के जीवन और कार्य से सम्बन्धित थे, अतः उसके विवरण के आधार पर तत्कालीन भारतीय भूगोल का विवेचन करते हुए जनरल कनिंघम ने अनेक बौद्ध स्थानों को खोज निकाला। ग्रंथ के प्रथम अध्याय में जनरल कनिंघम ने अपने अध्ययन के आधारभूत स्रोतों का उल्लेख किया है। उनके आधार पर भारत के प्राचीन प्राकृतिक भूगोल की सीमाओं और राज्यों का नामोल्लेख करते हुए पुस्तक का प्रणयन किया है। इस ग्रंथ में भारत के भूगोल को ठोस ऐतिहासिक अन्वेषण और पुरातात्विक ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर उजागर किया गया है और कल्पना और अनुमान को एक सिरे से अलग रखा है। इसलिए यह भारत के एक वास्तविक भूगोल का मानचित्र हमारे सामने रखता है, जिसे हम सबको पढ़ना और जानना आवश्यक है।

 

इस ग्रंथ में भारत के पांच खण्ड अथवा पांच इंडीज जैसा कि प्राय: चीनो इन्हे पुकारते थे, के अनुसार वर्णन किया गया है, वे निम्न प्रकार है:

(1) उत्तरी भारत में काश्मीर एवं आस पास की पहाड़ियों सहित पंजाब, सिंध पार सम्पूर्ण अफगानिस्तान तथा सरस्वती नदी के पश्चिम वर्तमान सिंध, सतलज प्रांत सम्मिलित थे।

(2) पश्चिमी भारत में यह भाग थे: सिन्ध, पश्चिमी राजस्थान, कच्छ एवं गुजरात तथा माप के समुद्र तट जो नर्वदा नदी के निचले मार्ग पर था।

(3) मध्य प्रान्त में सम्मिलित थे, थानेसर से डेल्टा तक तथा हिमालय से नर्मदा के किनारे तक के प्रान्त।

(4) पूर्वी भारत में आसाम, बंगाल, गंगा का मुहाना, सम्बलपुर के साथ-साथ उड़ीसा एवं गंजाम सम्मिलित थे।

(5) दक्षिणी भारत में पश्चिम में नासिक तथा पूर्व में गंजाम से लेकर, दक्षिण में कुमारी अन्तरीप तक का सम्पूर्ण पठार था। उसमे बरार तथा तेलंगाना के आधुनिक जिले, महाराष्ट्र एवं कोकन के साथ-साथ हैदराबाद, मैसूर तथा ट्रांबकोर के अलग अलग प्रांत भी सम्मिलित थे या यूं कह सकते है कि इसमें नर्वदा एवं महानदी नदियों के दक्षिण का करीब-करीब संपूर्ण पठार था ।

ब्रिटेन में अंग्रेजी में इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन (सन 1871) के करीब 50 वर्ष बाद सन 1924 में इस अमूल्य ग्रंथ का भारत में सुरेंद्रनाथ मजूमदार शास्त्री के संपादन में कोलकाता द्वारा पुनः प्रकाशन किया गया। हिंदी में इसका एकमात्र प्रथम अनुवाद श्री जगदीश चंद्र जी द्वारा किया गया, जो इलाहाबाद से सन 1971 में प्रकाशित हुआ। ये सभी संस्करण अभी अप्राप्य है। इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन (सन 1871) के डेढ़ शताब्दी से अधिक वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी इस ग्रंथ का महत्व और उपादेयता कम नहीं हुई है। यह ग्रंथ अध्येताओं के लिए सदैव एक मार्गदर्शी ग्रंथ रहा है और आज भी यह प्रामाणिक मानक ग्रंथों की श्रेणी में शुमार है और यह ग्रंथ अध्येताओं के लिए मार्गदर्शक ग्रंथ बना हुआ है। यह ग्रंथ भारत के प्राचीन भूगोल और इतिहास की जानकारी हेतु आज भी प्रकाश स्तंभ की तरह स्थापित है।

यह ग्रंथ लंबे समय से प्रिंट से बाहर है। इस महत्वपूर्ण ग्रंथ की अनुपलब्धता से प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्येताओं को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। हिंदी अध्येताओं को इस ज्ञान का लाभ मिले और यह ग्रंथ सबको सुगमता से मिल सके, इस दृष्टि को ध्यान में रखकर इसका एक सरल हिंदी अनुवाद का यह संस्करण सम्यक प्रकाशन द्वारा निकाला गया। आशा करते है कि इस ग्रंथ का भरपूर स्वागत किया जाएगा।

अब यह ग्रंथ सर्वसुलभ है, इसलिए इतिहास अध्येताओं, भूगोल ज्ञाताओं और साधारण पाठक को इस ग्रंथ से निश्चित रूप से लाभ होगा। यह ग्रंथ उनके ज्ञान में वृद्धि करने में बहुत सहायक सिद्ध होगा। यह एक पठनीय और संग्रहणीय ग्रंथ है, इसलिए आज ही इसकी प्रति अपने लिए सुरक्षित करवाएं और ज्ञान के अविरल प्रवाह में भागीदार बनें।

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